Wednesday, March 15, 2017

बेबस सी ये सांस है और बेबस है मान।

बेबस सी ये सांस है और बेबस है मान। 
सुविधाभोगी वो बने जो करते गुणगान। 

बदहाली का राग है  राजनीति मे टंच। 
वाद युद्ध दिखने लगा चाहे कोई मंच। 

वोट नीति है राजनीति  मचा रही अंधेर। 
पिछलग्गू बनता सदा जो करता है देर। 

वनवासी सपने हुए वक्त वक्त का फेर। 
अनजाने अपने हुए वे मचा रहे अंधेर। 

बदलावों के हादसे करते रहे प्रपंच। 
कौन यहां मौन है और कौन है टंच। 

चुप्पी अधरों की देख नजरे है हैरान। 
मौन दुहाई दे रहा लुटता जो सम्मान। 

परिभाषा बदल गई दिखा नया विवेक। 
अंतर्मन मे पल रहा देखो यह अतिरेक। 

देशद्रोह का पाप लै जनता हुई अधीर। 
आंखे हैं बौरा रही जिसमे छिपता नीर।

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