Sunday, February 16, 2014

गीत-२. -निर्वासित-

गीत-२. -निर्वासित-
उमर भर का स्वप्न था जो
आज निर्वासित हो गया था
जीवन का संत्रास बनकर के
अपनी पलकें भिगो गया था.

सपनों का माकान खडाकर
जीवन यापन करते थे
और राजनैतिक हथकंडो से
नेता शासन करते थे
शासन और प्रशासन सबका
अपना अपना काम था
वहाँ बना बाजार बडा था
सबका अपना दाम था.
बस्ती वालों का कुछ पल में
जीवन ही सारा खो गया था.

संगीनों और सिपेहसलारों से
बस्ती की जनता काँप गई.
नियम कानूनों के चलते वो
आगामी खतरों को भाँप गई.
उमर भर की कमाई से यारो
सबने अपना घर बनवाया
और प्रशासन की सह पर
आशियाना एक तनवाया.
ठिठुरता बचपन और बुढापा
खुले आसमाँ में सो गया था.

उजडे परिवार सडक पर थे
खुला आसमाँ ही छत था.
मानवीय आपदा से पीडित
किसी मासूम का खत था.
आवासित से निर्वासित होकर
उमर भर का दंश मिला था
ना ही कोई मदद मिली थी
ना मानवीयता का अंश मिला
महिला पुरुष और बूढे बच्चे
हर दिल इससे रो गया था.
अनिल अयान श्रीवास्तव,सतना.

सुकूँ है कहाँ मुझको बता दीजिये.

सुकूँ है कहाँ मुझको बता दीजिये.

हर तरफ नफरतों का घनघोर तम
सूर्य बनकर इसको हटा दीजिये
रोशनी दीजिये और ऊष्णता दीजिये
द्वेष की खाइयों को पटा दीजिये

दर्द है जिंदगी में यहाँ आजकल
सब करने लगे देख करके नकल
जब फुरसत मिली सब बुराई किये
दिलों में जलाते स्वार्थ के सब दिये
अवसर के तवों में राग सिकने लगा
बाजार में हुनर भी आज बिकने लगा
उलझनों में यहाँ वक्त कट रहा है
सुकूँ है कहाँ मुझको बता दीजिये.

उमर बढती रही सोच घटती रही
स्नेह की धार अश्रु बन कर बही
दाव चलते रहे शतरंज की जमीं
मूर्त सत्य है यहाँ खुशी और गमी
लोकतंत्र की कहानी लिखी जा रही
विवादों के संग समाज में आ रही
होनहार पूँछ बैठे यदि कभी आप से
मँजिलों का उसको पता दीजिये.
अनिल अयान श्रीवास्तव,सतना
९६४०६७८१०४०